Saturday, April 14, 2012

VIDROH


मित्रों आज बहुत दिनों बाद एक पूरी कविता लिखी, आपकी टिप्पणियाँ आमंत्रित हैं.......

इस कविता की भूमिका में दो पंक्तियाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा.

ऊपर हिम (बर्फ) से ढकी हुई हैं ये पर्वतमालायें,भीतर भीतर सुलग रही हैं प्रलयंकर ज्वालायें.


प्रस्तुत है कविता.......



विद्रोह.



भूख, दरिद्रता, उपेक्षा और अन्याय,

जहाँ यही सब होने लगे प्रतिपल.
अशिक्षा, तमस, अंधकार और विघटन,
जब यही बन जाएँ किसी का आज और कल.
घरों के नाम पर जिन्हें हमेशा मिलता रहे विस्थापन,
राजनीति ने जिनके साथ हमेशा किया हो छल.
अपनी ज़मीन, अपने खेत और अपनी फसलों के लिए,
जो तडपते रहे पल पल.
अपने कुटुंब, अपने बच्चों, अपने समाज की मज़बूरी देखकर,
जो होते रहे विकल.



जब वो देखता है की इसी देश में,
कुछ लोग हैं जो कीमती टाई लगाकर इठलाते हैं.
और एक वह स्वयं है जिसे अपने शरीर को ढकने के लिए,
एक धोती तक का नहीं है आलंबन.
किसी का बच्चा मोदक (लड्डू) को लात मारता है,
क्योंकि उसको मोदक नहीं लग रहा रुचिकर,
और एक उसका स्वयं का बच्चा है, जिसकी रूचि और अरुचि का तो छोडिये,
प्राण रक्षा के लिए ढूध तक नहीं है मयस्सर.



इतना अत्याचार, इतनी अवमानना और इतनी विकलता,
यह सब देखकर, वह क्रोध में जलता है,
भीतर ही भीतर घुटता है, पिसता है, अकुलाता है,
और यहीं से विद्रोह जन्म पाता है,
यहीं से विद्रोह जन्म पाता है,
यहीं से विद्रोह जन्म पाता है...

© सुशील मिश्र.

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7 comments:

sgoyal said...

bahut hi akcha

sgoyal said...

bahut sahi

sgoyal said...

sahi

Ankit Choudhary said...

Sushil bhai...likha to bahut acha hai. Magar main tumhare soch se poori tarah se sehmat nahin hoon.

andy said...

ati uttam

YATHARTH DRISHTANT said...

ankit bhai bahut bahut dhanyavaad....ab jaha tak poori tarah sahamt aur asahamt hone waali baat hai is sandarbh me to mai itane me hi khush hun ki aap kuchh to sahamat hai.....aur jin ponits pe aap asahamat hain unaka mai poori tarah se samman karta hu....

Saurabh Sinha Y2K said...

wonderful sushil bhai