Wednesday, February 20, 2013

राह और मंजिल



राह और मंजिल

कंटक हों ना जिन राहों में मुझको उनकी चाह नहीं,
सीधे सादे रस्तों पे चलने की कोई चाह नहीं.
अंधड़, आतप, बारिश, हिमगिरी जब तक ना टकरायें मुझसे,
ईश्वर की सौगंध मुझे उस मंजिल की भी चाह नहीं.


क्या पाना उस मंजिल को जो संघर्षों के बिना मिले,
समझो साजिश है माली की पुष्प बिना यदि पेड़ मिले.
मंजिल का सब खेल है माना, पर राहें तो राहें हैं,
जो राहों को इज़्ज़त देते मंजिल उनको सदा मिले.


मंजिल मंजिल करते हो, बोलो मंजिल में क्या रक्खा,
माना मंजिल पा ही लिया फिर जीवन में है क्या रक्खा.
जब तक आँखों में सपने है, और कदम तुम्हारे राहों पर,
ये समझो तुमने मानवता की सेवा का है व्रत रक्खा.


जैसे हम तुम सपने देखा करते सुखमय जीवन के.
वैसे ही सैनिक, किसान के सपने होते अनुपम से.
एक हमारे प्राण बचाता दूजा देश बचाता है,
मंजिल सबको दिखलाकर वो राह स्वयं बन जाता है.

भारत का कल अब सुदृढ़ हो इसके निमित्त कुछ काम करें,
आओ पथ को मजबूत करें हम चिन्तन मंथन का काम करें.
मंजिल मिलने पर रुकें नहीं अब नये रास्ते खोजें हम,
बलिदानों की परिपाटी से फिर नवयुग का निर्माण करें.


आओ रस्ते गढ़ें जिन्हें सदियों तक की पहचान मिले,
नज़र रहे आकाशों में पर धरती को पूरा मान मिले.
संपदा भुवन की चरणों में हो इसकी मुझको चाह नहीं,
पर पीड़ित से गर अन्याय हुआ तो ब्रह्मा की भी परवाह नहीं.


कंटक हों ना जिन राहों में मुझको उनकी चाह नहीं,
सीधे सादे रस्तों पे चलने की कोई चाह नहीं.
अंधड़, आतप, बारिश, हिमगिरी जब तक ना टकरायें मुझसे,
ईश्वर की सौगंध मुझे उस मंजिल की भी चाह नहीं.

© सुशील मिश्र.
    20/02/2013

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