Tuesday, April 30, 2013

दादियाँ और नानियां


दादियाँ और नानियां

ये झुकी हुई काया,
ये आँखों पे चश्मा,
ये चहरे की झुर्रियाँ,
खुली नज़रों से देखेंगे तो पायेंगे की,
सामान्यतः ये हैं बुढापे की निशानियां.
लेकिन,
उसी खुली नज़र को थोड़ा दिल के करीब लाएं,
हल्के से रूह के नज़दीक भी जाएँ.
तब उसी,
झुकी काया, आँख के चश्में और चहरे की झुर्रियों,
में, हमें अपना बचपन और उसी मे उनकी खुशियाँ,
हमारी शरारतें और उसी मे उनकी झिड़कियाँ,
उनके दुलार की ओट में हमारी गुस्ताखियाँ,
पूरे जहां से जो छुपा ले जातीं हैं हमारी बुराइयाँ,
असल में वे  ही होती हैं दादियाँ और नानियां......
असल में वे ही होती हैं दादियाँ और नानियां......

© सुशील मिश्र.
30/04/2013




Monday, April 29, 2013

वास्तविकता


वास्तविकता

तुम मे है यदि आग तुम्हारी लपटें बतला देंगी,
तुम मे है क्या ज्ञान तुम्हारी वाणी बतला देगी.
सच्चा वीर नहीं चाहता अपने पौरुष का गुणगान,
इतिहासों को पढ़ो तुम्हें वे खुद ही बतला देंगीं.

इसमें उसमें मुझमें तुझमें करता है जो भेद,
उनसे पूछो कितने रंग के होते हैं ये स्वेद (पसीना).
ज्ञानी हैं जो उनसे पूछो लहू के कितने रंग,
हाँथ खड़े कर देंगे अपने जतला देंगे खेद.

ज्ञानी कहते किसको जिसको ज्ञान नहीं है इतना,
पढ़ लें वे लाखों ही पुस्तक पढ़ना चाहें जितना.
ज्ञान मनन चिन्तन से मिलता कौन बताए इनको,
पुस्तक तो केवल साधन है रट लो चाहे जितना.

दया धर्म से जो जीता है जीवन अपना सारा,
प्राणिमात्र के हितचिन्तन में जिसने जीवन वारा.
काल स्वयं उसके सम्मुख आने से सकुचाए,
जिस मानव ने सकल पदारथ के हित मार्ग सुझाए.

वीर किसे कहते हैं तुमको ये भी अब बतला दूं,
सच्चाई के लिए लड़े जो वैसा शौर्य दिखा दूं.
कठिन समय हो फिर भी जो निर्भय होकर चलता है,
मातृभूमि के लिए लड़े जो वो ही वीर निकलता है.

निंदा करके दूजे की क्या कोई ज्ञान जुटा पाया,
नक़ल किया हो जिसने जीवन भर, वो किसको क्या सिखला पाया.
स्वयं भ्रमित हैं जीवन में जो खुद को पण्डित कहते हैं,
सच में जो पण्डित है वह खुद को, केवल ज्ञान पिपासु कहला पाया.

शांति शौर्य साहस और संबल कौन सिखाता जग में,
चिन्तन और चातुर्य का नियमन कौन बताता जग में.
ये ऐसी विद्याएँ जिनको गुरुकुल नहीं सिखाता,
स्वयं परिश्रम से ही उपजें ये सब अपने मग में.

वो देखो जो ऊपर बैठा बहुत बड़ा ज्ञाता है,
उसकी किताब में देखो भाई सबका ही खाता है.
वैसे तो ये नकली ज्ञानी सबकुछ सिखला देंगे,
वो जो सम्मुख आ जाये कुछ सूझ नहीं पाता है.

तुम मे है यदि आग तुम्हारी लपटें बतला देंगी,
तुम मे है क्या ज्ञान तुम्हारी वाणी बतला देगी.
सच्चा वीर नहीं चाहता अपने पौरुष का गुणगान,
इतिहासों को पढ़ो तुम्हें वे खुद ही बतला देंगीं.

© सुशील मिश्र.
29/04/13




Sunday, April 28, 2013

ये क्या होता है.


ये क्या होता है.

लहूलुहान धरती के बेटों देखो ये क्या होता है,
आँखों में यदी शर्म बची तो सोचो ये क्या होता है.
माँ बहना बिटिया बीवी से फुलवारी तो महक गयी,
जिसने हमको जन्म दिया उसके संग ये क्या होता है.

छोटी सी यदि बच्ची भी अब नहीं सुरक्षित गलियों में,
उसका बचपन भी छीना कुछ आदमखोर दरिंदों ने.
दिनकर ही जब काँप रहा है खुदकी भरी दुपहरी में,
फूल नहीं बनना है हमको मिलकर कहा है कलियों ने.

तरह तरह के फूल महकते हैं जिसकी फुलवारी में,
वातावरण सुगन्धित होता है जिसकी रखवाली में.
बहुत बड़ा यह प्रश्नचिन्ह है उस माली के वर्तन पर,
विष की कोई पौध मिले यदि उसकी ही फुलवारी में.

माना साशन कायर है पर तुमने भी कुछ ना बोला,
राजनीति की गद्दारी पर अपना मुहँ क्यूँ ना खोला.
सरेआम बाज़ारों में जब अस्मत लूटी जाती है,
गलियों से चौराहों तक में केवल सन्नाटा बोला.

सन्नाटों में कब तक दबकर रहेंगीं दुखदाई चीखें,
सन्नाटे तो ऊपर हैं विद्रोह की अंगड़ाई नीचे.
डरा डरा और सहमा सहमा जब तक यह कुनबा होगा,
समझो दुष्टों का ये बल है इस आडम्बर के पीछे.

अब तो तुम प्रतिकार करो वर्ना सोचो कल क्या होगा,
आज दिवस यदि ऐसा है कल अँधियारे में क्या होगा.
पाप कर्म करने वाले बैरी को अब पहचानों तुम,
हुँकार करो रणचण्डी सा बोलो रिपुमर्दन अब होगा.

वर्ना बस हम हाँथ मलेंगे और पछताएंगे कल को,
जो भी हमसे बिछड़ गये कैसे बिसराएँ अब उनको.
अपनों की यादें आँखों से जब आंसू बनकर रिसते हैं,
सचमुच सम्मुख आ जाते हैं खोया है हमने जिनको.

तुम तो अब संग्राम करो, वो (दुर्जन) चाहे कितना ओछा है,
सदा सुपथ के अनुयाई का भाग्य न सबदिन सोता है.
अपने कर्मठ संकल्पों से माहौल बदल कर रख दोगे,
याद रहे कि संघर्षों में वजन बहुत ही होता है.

लहूलुहान धरती के बेटों देखो ये क्या होता है,
आँखों में यदी शर्म बची तो सोचो ये क्या होता है.
माँ बहना बिटिया बीवी से फुलवारी तो महक गयी,
जिसने हमको जन्म दिया उसके संग ये क्या होता है.


© सुशील मिश्र.
28/04/2013

Wednesday, April 24, 2013

देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा.


देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा.

देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा,
आदमी क्यों यहाँ भेड़िया हो रहा.
आबरू बच्चियों की भी सुरक्षित नहीं,
आदमी वासना में है क्यों खो रहा.

हर तरफ ही अंधेरा अंधेरा लगे,
ज़िंदगी का कहीं ना बसेरा लगे.
कालिमा से भरी हर दिशाएँ यहाँ,
रोशनी ना कहीं ना उजेरा लगे.
अब तो दिन में भी गुड़िया को डर सा लगे,
आदमी भी उसे आदमी ना लगे.
जब से घर में ही बाज़ार नें घर किया,
हर तरफ जल उठा है ज़हर का दिया.
हम सभी उस ज़हर के हैं आदी हुए,
और तभी से हमारा पतन हो रहा.
देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा...........

ज़िंदगी को डुबोया गलत चाह में,
आ गये हम बहुत गर्त की राह में.
बस किताबों में पढ़ना सही और गलत,
ज़िंदगी का यही फलसफा अब फकत.
बात व्यवहार में कोई नरमी नहीं,
हम बने जा रहें हैं क्यों इतने सख्त.
ज़िंदगी की नहीं कोई कीमत यहाँ,
बिक रही है सरेराह में ये मुफ्त.
भावना जबसे दूषित हमारी हुई,
बस तभी से हमारा पतन हो रहा.
देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा................

श्लोक चौपाइयाँ जब फिजाओं में थीं,
यज्ञ की गंध जब इन हवाओं में थीं.
आचरण शुद्ध था मानसों का यहाँ,
कर्म में भी सदा तब मिताई ही थी.
रिश्ते नातों की कोई नहीं यदि वकत,
अब ये सोचें क्या बदलाव है ये गलत.
आज दिल्ली नें देखें हैं जो ये कफ़न,
पाप के इस सितम का है भारी वज़न.
अब जगें हम सभी और करें कुछ जतन,
बस तभी महकेगा ये हमारा चमन.

देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा,
आदमी क्यों यहाँ भेड़िया हो रहा.
आबरू बच्चियों की भी सुरक्षित नहीं,
आदमी वासना में है क्यों खो रहा.

© सुशील मिश्र.
24/04/2013

Thursday, April 18, 2013

ज़माना और हम


ज़माना और हम

ये ज़माना बहुत ज़ालिम है, ज़रा संभल के रहना,
जुमला-ए-खास तो अमूमन सबने सुना ही होगा.
घिसते रहे ताउम्र इस जुमले को हम सभी बराबर,
मगर ज़ालिम क्यों है ज़माना, किसी ने पूछा ना होगा.

असलियत से बेखबर हैं हम लोग, इसीलिए,
ज़माने ने जो कहा वही हम भी कहे जाते हैं,
सच्चाई का इल्म नहीं है हमें,
इसीलिए सबकी बात बस यूँ ही सहे जाते हैं.
पता नहीं क्यों हम आदत से मज़बूर,
हमेशा लकीर के फ़कीर ही बने जाते हैं.

दिल को मज़बूत करो, हौसले में उम्र भरो,
और फिर ज़माने कि आँख में आँख मिलाकर पूछो.
कि भाई तू इतना ज़ालिम क्यों है,
जिसे देखो वही तुझपे तोहमतें लगाता है,
और एक तू है कि फिर भी बाज़ नहीं आता है.

हमारा इतना पूछना ही था कि बस,
ज़माना हो गया लाल,
और हमें दिखने लगा अपना काल.
एकबारगी हमें लगा कि यार गलती कर दी,
इसे तो गाली सुनने की आदत थी,
लगता है हमने इसके ज़मीर पे चोट कर दी.
और हाँ सोचना हमारा सही निकला,
चोट तो ज़माने के ज़मीर पर ही थी,
और उसको लगी भी एकदम निशाने पर थी.

लेकिन ये क्या, वो तो शांतिवार्ता के माहौल में,
चिंतनपरक बातचीत पर उतर आया.
तब जाकर हमें समझ में आया,
कि लगता है आजतक किसी ने भी,
ज़माने की कोई फिक्र नहीं की.
बस उसे केवल और केवल तोहमतें,
इल्ज़ाम, गालियां और ज़लालत ही दी.

अब सोचो हमारे इस व्यवहार का,
वो क्या सिला दे.
हम उसके साथ बदसलूकी करते रहें,
तो वो कैसे हमें अपने गले से लगा ले.
हम लगातार गलतियां करते रहे,
और इल्ज़ाम उसके माथे धरते रहे.
कुछ दिनों तक तो फ़र्ज़ के नाते,
उसनें वो गलतियाँ छुपाई.

लेकिन जब ज़माने को इस बात का हुआ एहसास,
कि गलतियाँ करना और उसे ज़माने के माथे धरना,
ये हमारी आदत हो गई है.
तो उसने हमें कई बार समझाया,
लेकिन हमें नहीं समझ में आया.
इस बात से ज़माना हो गया उदास,
हम सुधरेंगे इसकी अब,
उसको बिल्कुल ना रही आस.

क्योंकी ये बात वो अच्छी तरह जान चुका था,
कि अनजानी गलतियाँ तो सुधारी जा सकती हैं.
लेकिन खुद की जिम्मेदारियों से,
लगातार और बार बार पीछे हटना,
और दोष हमेशा दूसरों पर पटकना.
अपनी गलतियों को हमेशा दूसरों पर थोपना,
और गलती करने से खुद को ना रोकना,
ऐसी बातें स्वयं को अंदर से,
पूरी तरह खोखला बना देती हैं.  
और हम उसके शिकार हैं,
हमारी आदतें खुद ही बता देती हैं.

अतः ज़माने को दोष देना,
ये स्वयं कमजोरी की निशानी है.
जिस दिन हम आगे बढ़कर,
अपनी गलतियों को स्वीकारेंगे,
और फिर उन्हें सुधारेंगे.
उस दिन यही ज़माना हमें सलाम करेगा,
और हम भी इसमें कोई दोष नहीं निकालेंगे.
क्योंकी जब हम अर्थात ज़माने वाले,
अच्छे होंगे तभी ज़माना भी अच्छा होगा.
तो आज ही कसम खाएं,
कि हम खुद को बदलें,
तो ज़माना खुद-ब-खुद बदलेगा.
ज़माने को ज़ालिम नहीं जिंदादिल कहें,
तो वो भी फूलों की तरह महकेगा.

© सुशील मिश्र.
   17/04/2013