Thursday, August 29, 2013

कृष्ण


कृष्ण

थी हवा प्रतिकूल, सागर भी उफानें मारता था,
कष्ट ढेरों हैं जगत में यह सदा वो जानता था.
पर अँधेरे कालिमा में ज्ञान की किरणें पिरोकर,
कृष्ण (काला) होकर भी जगत में ज्योति भरना जानता था.

थे बहुत दानव धरा पर मानवों का रूप धरकर,
धरा व्याकुल थी बहुत अनगिनत संताप सहकर.
किस समय किसको कहाँ कैसे गिराना और मनना जानता था,
कृष्ण (काला) होकर भी जगत में ज्योति भरना जानता था.

था बहुत ही प्रेम मन में गोप ग्वालों के लिए,
थी बहुत आसक्ति ब्रज रज और कदम्ब डालों के लिए.
पर ह्रदय में चोट सहकर भी वो चलना जानता था,
कृष्ण (काला) होकर भी जगत में ज्योति भरना जानता था.

© सुशील मिश्र.
 28/08/2013




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