Sunday, November 15, 2015

हक़

हक़

हमें इल्जाम देके गुनहगार बनाया है उसने,
खता क्या थी ये भी नहीं बताया है उसने.
हमने तो बहुत मेहनत से,
पहाड़ों में भी रस्ता निकाला,
मगर आज हमें ही रस्ते पे लाया है उसने.

मेहनत की शिद्दत को नहीं देखा उसने,
हमारी पुरज़ोर हिम्मत को नहीं देखा उसने.
गम इस बात का नहीं के फैसला मेरे खिलाफ था,
गम तो इस बात का है की,
फैसले को उसूल के तराज़ू से नहीं परखा उसने.

ऐसा लगता है के मेरे किरदार को ठीक से पढ़ा नहीं उसने,
और ये सच है! के सच को, सच से गढ़ा नहीं उसने.
इतना तो हक़ था के जान पाते,
की खता क्या थी हमारी,
मगर हमें इस हक़ से भी बेदख़ल किया उसने.

हमें इल्जाम देके गुनहगार बनाया है उसने,
खता क्या थी ये भी नहीं बताया है उसने.
हमने तो बहुत मेहनत से,
पहाड़ों में भी रस्ता निकाला,
मगर आज हमें ही रस्ते पे लाया है उसने.

© सुशील मिश्र.
15/11/15


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